Menu
blogid : 10124 postid : 19

पर रोज़ यहाँ मैं मरता हूँ !

तरकस
तरकस
  • 16 Posts
  • 47 Comments
सोंचा था खुल के जियूँगा पर,

मन की आस ना पूरी हुई,

आज़ादी का सपना, अपना,

पूरी, पर अधूरी हुई |
इतिहास दुहराता है है खुद को,

इतिहास में ही हम पढ़ रहे हैं,

अपनी अपनी हस्तिनापुर को,

आज भी भाई लड़ रहे हैं |
सुख चुका आँखों का पानी,

लाज हया विलुप्त हुई,

दानवता विस्तार पा रही,

मानवता सुसुप्त हुई|
गिर रहें हैं कट कट के सर,

धर्म के कारोबार में,

खुदा भी अब बँट चुका,

उत्तर- दक्षिण के त्यौहार में|
थी भली लाख गुना गुलामी, आज से,

आपस में तो ना लड़ते थे,

उन फिरंगी गोरों के आगे आ,

एक हिन्दुस्तानी होने का तो दम भरते थे|
था सही ऐ “नाथू” तूं,

अब यही सोचा करता हूँ,

मारा तुमने मुझे एक बार,

पर रोज़ यहाँ मैं मरता हूँ !

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh