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इस कहानी की पात्र और घटनाएँ काल्पनिक हैं.
पसीने वाली खुजली जब हो जाती है तो जाने का नाम नहीं लेती है. चाहे कुछ भी लगा लो. फिर दुबारा पसीना हुआ और खुजली चालू. भ्रष्टाचार भी ठीक पसीने की खुजली की तरह ही है. जाने का नाम नही लेती.
लेकिन गोविन्द, मोहनीश, सुशांत, और सुमन ने कसम खायी थी की भ्रष्टाचार को ख़त्म कर के हीं मानेंगे. चाहे इसके लिए जो करना पड़े, आर पार की लड़ाई लड़ेंगे. चारो मिल के एक साथ भ्रष्टाचार से लोहा ले रहे थे. एक साथ काम करते करते गोविन्द कब टीम को लीड करने लगे, किसी को भी पता नहीं चला.
लगभग साठ सालों से चली आ रही भ्रष्टाचार को मिटाने के दावे के साथ, भ्रस्ताचार से लड़ना आसान नहीं होता है. लेकिन साथ वर्षीय भ्रष्टाचार भी कोई छोटी मोती हस्ती नहीं थी की कोई चुटकी बजा के उसकी हस्ती मिटा दे.
भ्रष्टाचार को भी अपने पे गर्व था. आज़ादी के साथ साथ ही उसका जन्म हुआ था. मानो, उसके पहले भ्रष्टाचार का न कोई अस्तित्व था , न कोई नामोंनिशान.
जैसे साठ साल के बाद नेताओं का कैरियर अपने चरम पे होता है. अच्छे अच्छे मंत्री पद मिलते हैं. ठीक वैसे ही साठ वर्षीय भ्रष्टाचार की जवानी अपने चरम पे थी.
लेकिन चारों ने हिम्मत नहीं हारी “रघुकुल रित सदा चली आई, प्राण जाये पर वचन न जाई ” के उच्चारण के साथ उन्होंने भ्रष्टाचार के खिलाफ आमरण अनशन की घोषणा कर दी और बैठ गए जंतर मंतर पर.
गा, जो उसे मरणासन्न हालत से बाहर निकालेगा. जंतर मंतर के इस मानसिक स्थिति को भ्रष्टाचार में भांप लिया. वो ठठा कर हसंते हुए बोला – भले उम्र में मेरे से तुम बड़े हो. लेकिन अभी देश की सबसे बड़ी समस्या मैं हूँ मेरे से ध्यान हटे, तब तो इन “छोटे मोटे” समस्याओं के तरफ ध्यान जाये किसी का. तुम अपने अंतिम यात्रा की तैयारी कर लो. तुम्हारे पे तो किसी का ध्यान है नहीं, तुम्हरा अस्तित्व ख़त्म होने के बाद, न जंतर मंतर होगा, न लोग यहाँ धरना करेंगे, और नहीं मेरा नाश होगा. और ना मेरा नाश होगा और न लोग बाकि के समस्याओं पे ध्यान देंगे.
जंतर मंतर और भ्रष्टाचार के इस आपसी द्वन्द से अनजान चारो लोग अनशन पे बैठे थे. और टाइम पास के लिए उन्होंने कौवा उड़ चिड़िया उड़ खेलना शुरू किया.
गोविन्द जी टीम लीड थे, उन्होंने सबको खेलाना शुरू किया. कउवा उड़, सबने अपनी अपनी उंगली हवा में उठा दी. फिर उन्होंने कहा- मचली उड़, किसी ने अपनी उंगली नहीं उठाई. खेल आगे जारी हुआ.
गोविन्द जी बोले- कमल उड़. सबने ऊँगली उठा दी. कारण पिछले आठ साल से तो उड़ा ही हुआ है आखिर.
गोविन्द जी ने खेल आगे बढ़ाये, बोले – हाथ उड़. सबने फिर उंगली उठा थी. सोंचा होगा अगली चुनाव में उड़ जाये शायद.
फिर गोविन्द जी ने कहा- हाथी उड़. किसी ने उंगली नहीं उठाई, सिवाय गोविन्द जी के. अब खेल के नियम के मुताबिक गोविन्द जी को अपना हाथ आगे कर के मार खानी थी. सब कहने लगे, पहले मैं मारूंगा, पहले मैं मारूंगा.
गोविन्द जी ने आँख तरेरी – मुझे मारोगे? मैं टीम लीड हूँ टीम से बाहर कर दूंगा. सारे चुप हो गये. खेल फिर जारी हुआ.
अनशन पर साथ में बैठे कुछ और लोगों ने भी खेल में शामिल होने के लिए अपनी उंगली आके कर दी. गोविन्द जी बोले – साईकिल उड़. इस बार भी गोविन्द जी को छोड़ कर किसी और ने उंगली नहीं उठाई.
इस पर एक खिलाडी ने आपत्ति कर दी – ये तो गलत है. या तो हाथी उड़ेगी या फिर साईकिल. आप हाथी और साईकिल एक साथ नहीं उड़ा सकते.
उस खिलाडी की बात गोविन्द जी को नागवार गुजरी, और उस खिलाडी को खेल से हटा दिया.
अबकी बार गोविन्द जी बोले – करप्शन उड़.
किसी ने उंगली नहीं उठाई.
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